करीब डेढ़-दो साल पहले, लगभग पाँच-छः महीने तक की कई नाकाम कोशिशों के बाद मैंने अंततः ग्रैविटीज़ रेनबो को शेल्फ पर एक गहरी साँस लेकर छोड़ दिया था। ऐसा नहीं था कि मुझे किताब पसंद नहीं आ रही थी, बात दरअसल यह थी कि आठ सौ पन्नों की यह भारी भरकम किताब अपनी प्रख्यात जटिलता के कारण जितने समय की माँग मुझसे कर रही थी, उतना वक़्त देना मेरे लिए उन दिनों में कुछ दुसाध्य सा काम हो गया था; और अपनी छः महीनों की लगातार विफलता के बाद इस किताब का ज़िक्र भर मुझे अवसादग्रस्त-सा कर देता था। इसलिए मैंने किताब को किनारे कर, अपनी कमियों को कुछ कोसते हुए, कुछ सीधा-सरल, तो कुछ लम्पट साहित्य पढ़ कर अपना दिल बहलाया और इस हार को अपने दिमाग से दूर खदेड़ा। (विलियम एच गैस की किताब 'द टनेल' के साथ, और सैमुएल डेलेनी की किताब 'ढालग्रेन' के साथ भी कुछ ऐसी ही मुँह की खाई मैंने! इस विषय में मैं पहले भी अपना दुखड़ा रो चुका हूँ: यहाँ और यहाँ।)
लेकिन पिछले हफ्ते जी कड़ा कर के मैंने फिर इस किताब पर निगाहें दौड़ाईं और फिर से इस गद्य के समंदर में साँस रोक के गोता लगा दिया है, ठीक वैसे, जैसे किताब का नायक एक कल्ट सीन में (जिसे डैनी बोएल ने अपनी ध्वंसात्मक फिल्म 'ट्रेनस्पौटिंग' में भी फिल्माया है) कमोड के अन्दर लगाता है।
क्रिसी दो महीनों के लिए मुंबई में है और वक़्त की कुछ ख़ास कमी भी नहीं --- अभी नहीं, तो कभी नहीं!
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