Tuesday, August 18, 2015

रगों में दौड़ते फिरने के...

रात के 3 बज रहे हैं और तुम इस मटियाले अँधेरे में एक ओर बड़े गौर से देख रहे हो. "क्या ऊब गए हैं", "कुछ तो नया करना है", "कुछ एक्साइटिंग करूंगा... कुछ मस्त", "बहुत हो गया तुमरा आलस ससुर!", "नया, एक्साइटिंग, इंटेंस… ज़बरदस्त!"

तुम गौर से देखते हो, उलटते पलटते हो.… मुस्कुराते हो: "हाँ यार, यही करूंगा, बढ़िया आईडिया है"; और उत्साह में: "वाह लड़के क्या खूब सोचा है!"

पीटर नदास की पैरेलल स्टोरीज़ (समानान्तर कथाएँ), जिसे तुम स्ट्रैंड से 8 रूपये में एक दर्दनाक सेल में जूनूनवश खरीद लाये थे . 

(अट्ठारह साल का) भार महसूस करते हो - बकौल ए के हंगल, इस से भारी बोझ, "बाप के कन्धों पर बेटे का जनाज़ा", बस यही हो सकता है.  

और सो दे से.

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