मेरे परिचितों के बीच यह बात छुपी नहीं है कि रूसी साहित्य के प्रति मेरा मोह कभी कभी जुनूनियत की हदें पार सकता है। ऐसा क्यूँ है और किस प्रकार ऐसी परिस्थितियां विकसित हुईं, यह एक पेचीदा और जटिल सवाल है जिसका कोई सरल जवाब, कम से कम मेरे पास तो कतई नहीं है। (क्या यह रूसी साहित्य के दुःख, दारिद्र्य, अवसाद, राजनीतिक उहापोह, बोझिल कथानकों, मीलों दूर तक फैली हुई "ठंडी खामोश बर्फ़", उदासीन नायक-नायिकाओं और दुष्ट-लेकिन-गहरे-विचारोत्तेजक व्यक्तित्व वाले खलनायकों की बदौलत है; या फिर केवल कौतुक इत्तेफ़ाक़ कि स्कूल की लाइब्रेरी में एक बारह साल के बालक के हाथ मैक्सिम गोर्की की एक किताब का पड़ जाना (वह किताब 'मदर' थी, और मेरे हाथों में उसे देख कर, और उसके बाद कुछ और रूसी जैसे नामवाली किताबों को देख कर, मेरी माँ को शक होने लगा था कि कहीं यह लड़का कम्युनिस्ट तो नहीं बनता जा रहा? दूसरे शब्दों में, "लड़का हाथ से निकला जा रहा" मालूम होता है!) - इनके बीच में कोई पक्का फैसला कर पाना काफी मुश्किल है।) मेरे ब्लॉगर के प्रोफाइल में, जो करीब छ: (सात?) साल पहले बनाया गया था, और जिसके विषय में मैं बिलकुल भूल चुका था, अभी तक 'साहित्य' सेक्शन में 'रूसी साहित्य' का ज़िक्र है।
पिंचन की महा-पुस्तक 'ग्रेविटीज़ रेनबो' ख़त्म करने के बाद मेरा ध्यान फिर रूस की ओर भटका। कुछ एक हफ्ते पहले अपने बल्गेरियन प्रोफेसर से मिलने जब मैं पहुंचा, तो उनके दफ्तर के बुकशेल्फ पर सोल्ज्हेनित्सिन की 'गुलाग आर्किपेलागो' के पहले दो वोल्यूम देख कर मेरे मन में अदमनीय लालच उत्पन्न हुआ और मैंने अपने प्रोफेसर से इन्हें उधार मांगने की धृष्टता कर दी। बात दरअसल इतनी ही थी कि मैंने केवल वोल्यूम एक ही पढ़ा था (दो बार) और दूसरे और तीसरे पर कभी नज़र ही नहीं पड़ी। खैर, मेरी इस गुस्ताखी पर प्रोफेसर साहब बड़े खुश हुए और बोले "जा बिटवा, रख ले इन्हें! मैं अपने ऑफिस के लिए एक और प्रति मंगवा लूंगा ..." इतना ही नहीं, उन्होंने मुझे बड़े उत्साहित स्वर में यह भी बताया कि आज कल वह उत्तर कोरिया के गुलागों से भागे कैदियों की सत्य-कथाएँ पढ़ रहे थे और उनके विचार से वहां सोवियत यूनियन से भी बदतर स्थितियां थीं!
वोल्यूम एक और दो पाकर इधर मेरा मन फूला नहीं समा रहा था और शायद मैं प्रोफेसर साहब की बातों पर कुछ विशेष ध्यान भी नहीं दे रहा था। मेरा हाथ तो बस इन किताबों को महसूस करने और उनके पन्नों पर जमी गर्द की महक से उतावला हुआ जा रहा था! तो बस घर लौटते ही मैंने तीसरा वोल्यूम आर्डर किया और इन तीनों को अपनी प्लेलिस्ट पर जोड़ लिया! यह भी फैसला लिया गया कि इनके बाद जिस किताब का काम तमाम किया जायेगा, वह फ्रांसिस स्पफ़र्ड की 'रेड प्लेंटी' ('लाल प्रचुरता') होगी। इन चार किताबों के बीच अगले महीने दो-महीनों में मैं सोवियत इतिहास के विषय में करीब ढाई हज़ार पन्नों का अध्ययन करूंगा! और इस बार, जब वोल्यूम 1 (जिसे मैं तीसरी बार अब पढ़ रहा हूँ (पहली बार पढ़ते वक़्त मुझे याद है, कि सोवियत यूनियन की नृशंसता और उनके क़ानून-कायदे (जो एक स्याह मज़ाक-से लगते थे) पढ़ कर उत्पन्न अविश्वसनीयता को मैं नियंत्रित नहीं कर पाता था और पांडू के रूम में जा कर उसे सोवियत यूनियन के "आर्टिकल 58" के नियम सुनाया करता था - शुरू में पांडू जी महाराज को यह अपने परामानविक दर्शन के चिंतन में मात्र एक बाधा सदृश लगता था, लेकिन मेरा अनुमान है कि (मेरे द्वारा की गयी) थोड़ी जोर ज़बरदस्ती के बाद वह भी इस साहित्य से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते थे।)) में तीन सौंवे पन्ने पर हूँ तो इस बात का ज़रूर ख्याल कर रहा हूँ कि इस मानव इतिहास के स्याह अध्याय का गहन विश्लेषण करूँ - इसीलिए कई बार पन्नों पर नज़र दौड़ाने के साथ साथ मैं विकिपीडिया से रूसी और सोवियत इतिहास के बारे में भी पढ़ता जा रहा हूँ। आशा है कि इस चौकड़ी से घमासान करने के बाद मैं थोड़ा अधिक जानकार, थोड़ा बुद्धिमान बन कर निकलूंगा!
2 comments:
Nice blog!
My encounters with Russian literature were mostly in hindi translations, so this post reminded me of that. Need to get back to it. :)
Glad to be of service...
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