Thursday, February 25, 2016

एकदा मेटलोपरांते

(नोट: टाइटल अमृतलाल नागर की "एकदा नैमिषारण्ये" से चुराया हुआ है.)

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अपने बैंड का नाम बहुत सोच समझ के रखना चाहिए. केवल धाकड़ नाम से कुछ नहीं होता है. केवल धाकड़ अर्थ से भी कुछ नहीं होता है. इस मामले का भी ख्याल रखना चाहिए कि बैंड खुद को कैसे देखता है - उसकी आत्म-व्याख्या क्या है? क्या बैंड के सदस्य खुद को और अपनी कला को बड़ी गंभीरता से लेते हैं? या फिर आत्म-व्यंग्यात्मक समझ की सम्भावना है? ये सब मालूम होना बहुत ज़रूरी है. (इस मामले में एक अच्छा भविष्यवक्ता बैंड मेंबर्स की काफी सहायता कर सकता है.)

अब पोस्ट-मेटल बैंड "आइसिस" को ही लीजिये - बिचारे अपनी संजीदा नामावली को कितना कोसते होंगे! अगर कोई हंसोड़ नाम रखा होता तो क्या ये दिन देखना नसीब होता? क्या कोई छिछोरा, आत्मोपहासी नाम-मात्र, आतंक-अवरोधी बीमा नहीं है? क्या कल को कोई आतंकी संगठन अपना नाम "बटहोल सर्फर्स" (अनु: नितम्ब-छिद्र अन्वेषी) रख सकता है? लेकिन "ऐन्थ्रैक्स" और "स्लेयर" जैसे नाम आतंकियों की लिस्ट में इज़्ज़तदार और हिट नामों में शुमार होंगे. नहीं? 

मुझे तो लगता है कि आम तौर पे आर्टिस्ट जनता को खुद को सीरियसली लेना ही नहीं चाहिए; और ढिठाई और हलके छिछोरेपन की एक मोटी, पुष्ट चादर में स्वयं को लपेटे रहना चाहिए. ऐसा करने से बकैती में भी इज़ाफ़ा होता है - विश्वास न हो तो कुंदन शाह और कमल स्वरुप से पूछ लो.

वैसे पीकेडी लिखित, सत्यव्रत अनूदित "बह मेरे आँसू पुलिसवाला बोला" के बारे में सुना है तुमने? मेरे मुंह में तो पानी आ रहा है! 

Saturday, February 20, 2016

निरी आर्ट फिल्म

"सतह से उठता आदमी" मेरे लिए मणि कॉल की पहली पिक्चर थी. इस फिल्म में वे सब गुण थे जिनसे आम इंसान थोड़ा घबराते हैं - बोझिल संवेदना, धीमी चाल, अवसादोन्मुख यथार्थ - और एक सजग, सघन कलात्मक आत्मतुष्टता.

इन शार्ट, बेहद पकाऊ.

बचपन में इन्ही कारणों से मैं आधुनिक हिंदी साहित्य से बचता था. देवकीनन्दन खत्री का मैं भक्त था, लेकिन इतना मुझे भी मालूम था कि बड़े राइटर खत्री बाबू नहीं, बड़े राइटर मुक्तिबोध हैं, या उनके टाइप के अमूर्त, निम्न-मध्यवर्गीय पर्यवेक्षण में लिप्त उनके चेले चपाटे. कॉलेज के दिनों में मैं स्वतः हिंदी साहित्य के प्रति पुनर्जिज्ञासित हुआ, लेकिन इसका श्रेय निर्मल वर्मा को देना बेहतर होगा - निर्मल वर्मा, जो यूरोप में दोस्तों के साथ बियर पीते थे, उम्दा यात्रा साहित्य लिखते थे, नयी कहानी के प्रणेता थे; और कूलता की सारी हदें पार कर चुके थे. बीच बीच में मैं फिर से मुक्तिबोध की तरफ लौटता था (हूँ) ("शायद इस बार कुछ चमकेगा!?") लेकिन उनकी अमूर्त कविताओं का लौह आवरण अभी तक अभेद रहा है - बू हू!

कुछ ऐसा ही सोच के मैंने फिल्म देखने का फैसला किया था. ये सोच के कि कम-से-कम किताब पढ़ी है, खुद को हौसला भी दिलाया था. "पिक्चर बोरिंग है और पल्ले भी नहीं पड़ेगी", ये स्वयं को आगाह भी था. लेकिन जैसा सोचा था, वैसा ही हुआ - सतह से उठता आदमी, सुपर थकाऊ और सुपर पकाऊ पिक्चर निकली - निरी आर्ट फिल्म सुसरी!

लेकिन मैं उसे भूल नहीं पाया.