(नोट: टाइटल अमृतलाल नागर की "एकदा नैमिषारण्ये" से चुराया हुआ है.)
...
अपने बैंड का नाम बहुत सोच समझ के रखना चाहिए. केवल धाकड़ नाम से कुछ नहीं होता है. केवल धाकड़ अर्थ से भी कुछ नहीं होता है. इस मामले का भी ख्याल रखना चाहिए कि बैंड खुद को कैसे देखता है - उसकी आत्म-व्याख्या क्या है? क्या बैंड के सदस्य खुद को और अपनी कला को बड़ी गंभीरता से लेते हैं? या फिर आत्म-व्यंग्यात्मक समझ की सम्भावना है? ये सब मालूम होना बहुत ज़रूरी है. (इस मामले में एक अच्छा भविष्यवक्ता बैंड मेंबर्स की काफी सहायता कर सकता है.)
अब पोस्ट-मेटल बैंड "आइसिस" को ही लीजिये - बिचारे अपनी संजीदा नामावली को कितना कोसते होंगे! अगर कोई हंसोड़ नाम रखा होता तो क्या ये दिन देखना नसीब होता? क्या कोई छिछोरा, आत्मोपहासी नाम-मात्र, आतंक-अवरोधी बीमा नहीं है? क्या कल को कोई आतंकी संगठन अपना नाम "बटहोल सर्फर्स" (अनु: नितम्ब-छिद्र अन्वेषी) रख सकता है? लेकिन "ऐन्थ्रैक्स" और "स्लेयर" जैसे नाम आतंकियों की लिस्ट में इज़्ज़तदार और हिट नामों में शुमार होंगे. नहीं?
मुझे तो लगता है कि आम तौर पे आर्टिस्ट जनता को खुद को सीरियसली लेना ही नहीं चाहिए; और ढिठाई और हलके छिछोरेपन की एक मोटी, पुष्ट चादर में स्वयं को लपेटे रहना चाहिए. ऐसा करने से बकैती में भी इज़ाफ़ा होता है - विश्वास न हो तो कुंदन शाह और कमल स्वरुप से पूछ लो.
वैसे पीकेडी लिखित, सत्यव्रत अनूदित "बह मेरे आँसू पुलिसवाला बोला" के बारे में सुना है तुमने? मेरे मुंह में तो पानी आ रहा है!