Monday, February 25, 2013

Meanwhile, Dibakar Bannerjee is all Smiles

A stunning piece of reportage - Daniel Brook writes a lengthy, even meditative piece on the rise of a once great city and its current aspirations of world domination: Head of the Dragon: The Rise of New Shanghai.

Do read the brilliant essay. This is journalism as the way it should be.

Saturday, February 23, 2013

Ichi Kyu Hachi Yon

NF finished this book about a couple of weeks back and overall, it'll be fair to say that he has mixed feelings about it. For a twelve hundred page tome and for being the Murakami opus it's now made out to be, the book has surprisingly little to offer. The fantastic elements are unconvincing and do not add any real charm to the book. No real connections to the Orwellian 1984 either - symbollically, thematically, literarily or otherwise. One wonders why Murakami had to choose that particular year as the setting for this book, except for the multilingual pun that the title bears. Or perhaps Nanga Fakir didn't get the book at all!

However, during the latter half, the great master does oblige. Especially after the introduction of Ushikawa - that unctuous, ugly, unsympathetic yet supremely tragic and even heroic-in-his-own-way character. That is when Murakami veers into the Paul Auster territory - the hardboiled zone in which detectives are too smart for themselves and their endeavours - initially (very fruitfully) directed outwards at their unwitting objects of detection take a more inward turn and unmoor their own masters, as the boundaries between the watcher and the watched become blurred, as days and nights pile on each other, as all meaning is slowly sucked out and the private eye becomes one with the object of detection in an ascetic embrace. Not to say that Murakami is aping Auster here - far from it - in fact he's worked with such themes for a long time now and all these qualities made his older, more compact Sputnik Sweetheart a brilliant, fabulous read.

Do read this mammoth, for Murakami rescues the otherwise clunky parts in the last four hundred or so wonderfully written pages. A good book overall, but we know Murakami is capable of much, much greater feats.

Monday, February 18, 2013

The Winter Demographer

As B looked out the window, he could see the gentle, gradual descent of mid-sized snowflake-fractals. A mild breeze imparted a tiny drift to their motion and he looked long and leisurely at their languid floatation, their placid trajectories tracing out countless, random paths in the sky.

Time was in ample supply for the lone occupier of that cavernous building and idle objects of insignificant importance seem to trigger in him broodings of an indefinite character, the trajectories of which, much like the ones of their counterparts outside the window, had a free-floating, unencumbered, purposeless quality.

As his eyes lay transfixed at the scene unhurriedly unfolding outside the window, his mind wafted across from one point to another - an internal hidden semi Markov chain mimicking and exemplifying the abstract, similarly named processes he lectured on externally. He thought of impending calamities, brushed away distant memories of domestic strife, mused about lost opportunities, paths not taken, the soundlessness of solitude, the mild fragrance of loneliness and recursively thought about what he had been thinking about.

He let out a deep, almost involuntary sigh and got back to grading.

Saturday, February 09, 2013

डायलागबाज़ी

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कादर खान मरा नहीं।

कादर खान मरते नहीं।

Sunday, February 03, 2013

हट लूटणे वाले!

जिस हिकारत से इस गाने में 'हट, हट' का नाद होता है और उससे श्रोता में जिस सहज प्रकार से रोमांच उत्पन्न होता है वह हमें फिल्म की, और ख़ास तौर पर एक परिपक्व कलाकार की, डरावनी ताक़त महसूस करवाता है। गुलज़ार की कविता और विशाल भारद्वाज का संगीत और निर्देशन - दर्शकों का गिरहबान पकड़ के उन्हें झकझोरने के लिए इस बेहतर टीम का मिलना मुश्किल है। कुछ मिसालें:

तेरी लोहा लाठी नहीं चलेगी
तेरी हेकड़ी हाठी नहीं चलेगी
अब चले हथौड़ा, हथौड़ा
हथौड़ा और दराती
हट लूटणे वाले
...

जिसकी खेती उसकी ज़मीं है
बाबाजी की धौंस नहीं है
जिसका गन्ना उसकी गंडेरी
हट, हट, हट
...

हम बीज न देंगे
हम ब्याज न देंगे
रे कल का दर्जा
आज न देंगे

तेरी छतरी ले कर नहीं चलेंगे
अब धूप में तेरे पाँव जलेंगे
जो खोदे कुंवा उसका ही पानी
हट लूटणे वाले (हट, हट)

हाल ही में, अपने 'हिंदी बेल्ट' के छह हफ्ते के प्रवास के दौरान इस फिल्म को सिनेमा हॉल में दो दफ़ा देखने के बाद नंगा फ़क़ीर के मन में यह विचार आया कि कहीं ऐसा तो नहीं कि श्याम बेनेगल और गोविन्द निहलानी ने सत्तर और अस्सी के दशकों में बनायी अपनी यथार्थपरक, संजीदा और बेहतरीन फिल्मों को बनाने के बावजूद कहीं कोई गलती तो नहीं कर दी? आर्ट फिल्मों को उबाऊ मान कर लाखों लोगों ने इनकी और देखने की ज़हमत नहीं उठाई; लेकिन उन्हीं बातों को व्यंग्यात्मक तरीके से, एक ज़बरदस्त साउंडट्रैक के माध्यम से औरों तक संप्रेषित करने का बीड़ा जो निर्देशकों की इस नयी फ़ौज (न्यू वेव) ने उठाया है, कहीं वह एक बेहतर विकल्प नहीं था इन जम्हाईपरक, गंभीर बातों को कहने का? (ज़ाहिर है की यह बहुआयामी समस्या और जटिल है: श्याम बेनेगल ने कई बेहतरीन और बेहद मज़ेदार तरीकों से इन बातों को कहने की कोशिश की है, ख़ास तौर से "वेलकम टु सज्जनपुर" और "वेल डन अब्बा" में; और ऐसा नहीं है कि इस न्यू वेव की हर इस कोशिश को दर्शकों के पैसों की पुचकार मिली हो - आखिर "मटरू की बिजली का मंडोला" जैसी धाँसू फिल्म भी 'हिट' फिल्म का लेबल नहीं जीत पाई।)

हम इस विषय में जो भी कह लें, इस बात को हम कतई नकार नहीं सकते हैं कि इस न्यू वेव ने हमारी हिंदी सिनेमा के मौजूदा फोर्मूलों को ही खींच तान कर नयी हिंदी फिल्म को जो नया अमलीजामा पहनाया है, वह पहले कभी देखने में नहीं आया। फ़िल्मी संगीत को कथानक का सारथी बना कर अपनी बात कहना - यह तो निश्चय ही सत्तर-अस्सी के दशकों के समानांतर सिनेमा ('पैरेलेल सिनेमा') के आन्दोलन में नहीं देखने को मिला था। इसी फिल्म को ही लें, तो प्रेम देहाती के ठेठ हरयाणवी लोकगीतों का ऐसा फ़िल्मी, किन्तु सशक्त प्रयोग करना हिंदी सिनेमा के विकास-क्रम में एक नया अध्याय है। (ऐसी नव-प्रयोगवादिता मध्यवर्गीय भारत की अधिक सम्पन्नता के कारण ही फल फूल पाई, इस अर्थशास्त्रीय कारण को भी कला के विकास के कथानक से भिन्न कर के नहीं देखा जा सकता।) न्यू वेव के सांगीतिक अनुदान को हम ज़रा भी नकार नहीं सकते हैं - विशाल भारद्वाज के नेतृत्व में अमित त्रिवेदी, स्नेहा खन्वल्कर, राम संपत वगैरह नए संगीत निर्देशकों के संगीत ने फिल्मों की पटकथा को एक नया शब्दकोष दे दिया है।


हालांकि इस प्रयोगवादिता का प्रारम्भ व्यावसायिक सिनेमा में राम गोपाल वर्मा की देन है, सच पूछिए तो जिस फिल्म ने हम सबकी चूलें हिला दी थीं वह थी ओमकारा। इस विषय में, फिल्मों में संगीत की इस नयी भूमिका के बारे में, और ख़ास तौर पर 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' के बारे में और बहुत कुछ कहना है, लेकिन फिर कभी।