"सतह से उठता आदमी" मेरे लिए मणि कॉल की पहली पिक्चर थी. इस फिल्म में वे सब गुण थे जिनसे आम इंसान थोड़ा घबराते हैं - बोझिल संवेदना, धीमी चाल, अवसादोन्मुख यथार्थ - और एक सजग, सघन कलात्मक आत्मतुष्टता.
इन शार्ट, बेहद पकाऊ.
बचपन में इन्ही कारणों से मैं आधुनिक हिंदी साहित्य से बचता था. देवकीनन्दन खत्री का मैं भक्त था, लेकिन इतना मुझे भी मालूम था कि बड़े राइटर खत्री बाबू नहीं, बड़े राइटर मुक्तिबोध हैं, या उनके टाइप के अमूर्त, निम्न-मध्यवर्गीय पर्यवेक्षण में लिप्त उनके चेले चपाटे. कॉलेज के दिनों में मैं स्वतः हिंदी साहित्य के प्रति पुनर्जिज्ञासित हुआ, लेकिन इसका श्रेय निर्मल वर्मा को देना बेहतर होगा - निर्मल वर्मा, जो यूरोप में दोस्तों के साथ बियर पीते थे, उम्दा यात्रा साहित्य लिखते थे, नयी कहानी के प्रणेता थे; और कूलता की सारी हदें पार कर चुके थे. बीच बीच में मैं फिर से मुक्तिबोध की तरफ लौटता था (हूँ) ("शायद इस बार कुछ चमकेगा!?") लेकिन उनकी अमूर्त कविताओं का लौह आवरण अभी तक अभेद रहा है - बू हू!
कुछ ऐसा ही सोच के मैंने फिल्म देखने का फैसला किया था. ये सोच के कि कम-से-कम किताब पढ़ी है, खुद को हौसला भी दिलाया था. "पिक्चर बोरिंग है और पल्ले भी नहीं पड़ेगी", ये स्वयं को आगाह भी था. लेकिन जैसा सोचा था, वैसा ही हुआ - सतह से उठता आदमी, सुपर थकाऊ और सुपर पकाऊ पिक्चर निकली - निरी आर्ट फिल्म सुसरी!
लेकिन मैं उसे भूल नहीं पाया.
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